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“Some goals are so worthy, it’s glorious even to fail!” – Capt Manoj Pandey
जिंदादिल सोच और दिल मे परमवीर चक्र को पाने का सपना लिए वो पहली बार मेरे वादियों में आया था। 25 साल का वो जवान जो बड़े ही आराम से अपने घर छुटियों पर जा सकता था, लेकिन मेरे बिगड़ते हालात देख कर वो अपने साथियों को अकेला छोड़ कर न गया।वक़्त आने पर मृत्यु को भी जीत लूंगा
मई 13, 1999 की बात है, जब मेरी बर्फ पिघलना शुरू ही हुई थी और इसी के साथ ही भारतीय सेना को लगभग 700-800 पाकिस्तानी घुसपैठियों की घुसपैठ के बारे में सूचना मिली थी, जो छिपते हुए किसी तरीके से LOC पार करने में कामयाब रहे थे और साथ ही उन्होंने पाकिस्तानी सेना की मदद से भारतीय बंकरों पर कब्जा कर लिया। उनका इरादा NH 1 पर गोलाबारी करके मेरे इलाके में मौजूद भारतीय सेना की गतिविधियों और संचार व्यवस्था को पूरे तरीके से रोकना था। भारतीय सेना की अलग-अलग रेजीमेंटों को यहां के सभी सेक्टरों में घुसपैठियों को भारत की सीमा से खदेड़ने के लिए भेजा गया। इसी बीच 1/11 गोरखा रेजीमेंट को भी कारगिल की अहम चोटियों को फतह करने की जिम्मेदारी दी गई। इस रेजीमेंट के आने के बाद मैंने पहली बार उसे देखा था। इस तनाव वाले माहौल में भी उसके चेहरे पर छाई शांति मेरी वादियों से ज्यादा ठंडी और सुकून भरी दिख रही थी। कुछ दिन पहले ही उनकी कंपनी मेरे पड़ोसी यानी सियाचिन से होकर आई थी।
उनको और उनकी कंपनी को छुट्टी मिल गयी थी, पर मेरे बिगड़ते हालातों ने उनको मुझसे ज्यादा बेचैन कर दिया, छुट्टी पर जाने के बजाय उस नौजवान ने युद्ध भूमि में जाने का फैसला लिया। फील्ड एरिया में होने और पिछले ऑपरेशन में मिली सफलता के कारण उन्हें कैप्टन पद पर प्रमोट कर दिया गया।
मुझे आज भी वो दिन अच्छे से याद है। कैसे पद संभालते ही कैप्टन साहब ने अपने कुशल नेतृत्व और साहस का परिचय दिया। उन्होंने अपनी साथियों के साथ मिल कर मेरे कोई सेक्टरों से दुश्मनों को मैदान छोड़ भागने पर मजबूर कर दिया था। तभी खालूबार सेक्टर से खबर आई, कि पाकिस्तानी घुसपैठिए लगातार भारतीय सैनिकों को निशाना बनाकर गोलाबारी कर रहे थे। ये जानते ही मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था। मन हो रहा था कि अभी ऐसी बर्फ बारी करु की दुश्मन की हालात खराब हो जाये, पर ये बात जान कर ही मैं शांत हो गया कि कमांडर ललित राय ने खालूबार की सुरक्षा की जिम्मेदारी कैप्टन साहब को सौंप दी थी। वो अपनी पलटन के साथ 3 जुलाई की रात खालूबार फतह करने निकल पड़े।
वहाँ पर पहले ही दुश्मनों ने भारतीय बंकरों पर कब्जा जमाया हुआ था और हमारे ही रसद को खा कर वो हमारे ऊपर ही हमला कर रहे थे। जैसे ही पाकिस्तानी घुसपैठियों को भारतीय सेना की पलटन की मौजूदगी का पता चला घुसपैठियों ने पलटन पर गोलाबारी शुरू कर दी।
मैं आँखे टिकाये बेसब्री से इंतजार करने लगा, मुझे देखना था कि कैप्टन साहब किस तरीके से दुश्मनों पर वार करेंगे और मेरा ये इंतज़ार बेकार नही गया। स्थिति समझने में उन्हें ज्यादा समय नही लगा, अपनी कुशल नेतृत्व का परीचय देते हुए उन्होंने गोलीबारी से बचाते हुए अपने साथियों को एक चटान के आड़ में कवर लेने को कहा और अलगे ही पल वो नौजवान जवाबी कार्रवाई की रणनीति बनाने में लग गया। कैप्टन साहब चाहते थे, कि सुबह होने से पहले उनकी पलटन खालूबार की पोस्टों पर कब्जा जमा ले, क्योंकि सूरज उगने के साथ परेशानिया बढ़ जाती। दिन के उजाले में पाकिस्तानी घुसपैठिए उनकी पलटन की हर हरकत को आसानी से देख लेते और चटान की आड़ भी उनको दिन ने गोलियों से ज्यादा देर बचा नहीं सकती थी।
खालूबार का मोर्चा संभालते ही उन्होंने अपनी एक टुकड़ी की दाये तरफ़ भेजा, और बाकियों के साथ कैप्टन साहब बाईं ओर से दुश्मन की पकड़ से चौकियों को साफ करने के लिए आगे बढ़े। उन्होंने दुश्मन के पहले ठिकाने पर अपनी पलटन के साथ हमला किया और दो पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार गिराया। पहले ठिकाने को पाकिस्तानी घुसपैठियों से आज़ाद कराने के बाद उन्होंने दूसरे ठिकाने पर हमला करते हुए दो और घुसपैठियों को मार गिराया। खालूबार में दो ठिकाने बर्बाद होने के बाद पाकिस्तानी घुसपैठियों की पकड़ कमजोर पड़ने लगी थी।
मैंने देखा कि वो अब तीसरे ठिकाने की तरफ बढ़ रहे थे। लगातार दूसरी तरफ से गोलियां चल रही थी, उसके बावजूद कैप्टन साहब के कदम एक बार भी न रुके। दुश्मनों को मजा चखाने के लिए वो अपने सभी साथियों से आगे निकल चुके थे। इस वक़्त मेरी सांसे थम सी गयी थी। मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था, कि दुश्मनों की एक भी गोली इनके आस पास से भी ना निकले, लेकिन तभी एक गोली उनके कंधे और दूसरी पांव पर लगी और वे गंभीर रूप से घायल हो गए। ये देख कर मेरी अंतरात्मा दुख में जा चुकी थी। तभी अचानक मैंने देखा कि इस घायल हालात में होने के बाद भी वो खड़े हुए और अपने देश की रक्षा के लिए आगे बढ़ते रहे। इसके बाद उन्होंने घुसपैठियों का तीसरा ठिकाने को भी बर्बाद कर दिया, और जैसे ही वो आगे बढ़ने लगे वैसे ही दुश्मन की एक गोली आकर कैप्टन साहब के सिर में लगी। इसके बावजूद उन्होंने दुश्मन के चौथे ठिकाने को भी समय रहते हुए ग्रेनेड से उड़ा दिया और खालूबार पर तिरंगा लहरा दिया।
कैप्टन साहब के आख़री शब्दों “ना छोडनु” ने मेरी पूरी घाटी को हिला दिया था। उनकी पलटन के साथ -साथ मेरे अंदर भी एक आग लगा दी थी, कैप्टन साहब की वजह से ही आर्मी का खालूबार पर फिर से नियंत्रण पाना मुमकिन हो पाया था।