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कुछ 54 साल बाद फिर कदमों की आहट सुनाई दे रही हैं। आज के सुबह की शुरूआत वैसे ही हो रही हैं जैसे आज से 54 साल पहले हुआ करती थी। ग्रामोफोन पे बजता राष्ट्रगान और कदम से कदम मिला कर चलते जवान, ऐसी सुबह को देखे अरसा गुज़र गया था। खैर कहते है न कि हर इंतज़ार का अंत होता है वैसे ही आज अंत था अपने इंतजार का।
वो आख़िरी सुबह जो मुझे याद है उस सुबह में कदमों की आहटें तो थी पर उसके साथ ही शामिल थी चलती गोलियों की आवाज़। लेकिन आज नहीं, आज की सुबह एक शुकुन वाली सुबह थी आज वो सुबह थी, जिसका इंतजार हम 25,942 लोगो को वर्षों से था। हममें से कुछ लोग इस सुबह का इंतजार 20 तो कुछ 71 साल से कर रहे थे। मैं भी उनमें से ही था जिसको 54 वर्षों से इस सुबह का इंतजार था।
आज सुबह से ही चहलकदमी शुरू हो गयी। जैसे जैसे दिन चढ़ रहा था, वैसे-वैसे लोगों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। हम सभी खुश थे उन आने वालों के भीड़ में हमारे अपनो के कुछ परिचित भी शामिल थे, जो उनसे मिलने को आए थे। परिचितों के आने से खुशी तो थी पर गम भी था उनसे इतने दिन बाद मिलने का। खैर दिन फिर से कटता गया और हर दिन के साथ अब मेरा मेरे अपनो से मिलने का इंतज़ार बढ़ता जा रहा था। साथियों के परिचितों का आना और साथ फूल लाना तो जारी था, पर मेरे इंतजार का कोई अंत मुझे दिख नही रहा था दिन यूँ ही इंतजार में बीत रहा था।
कुछ दिनों बाद 16-18 साल के लड़को का एक समुह मेरे पास से गुज़रा। उनके चहरे पे वही चमक थी जो कभी हमारे चहरे पे हुआ करती थी। हम सब उनको देख कर खुश थे, हमे उनमे अपना अतीत दिख रहा था। हमारे वो दिन जब हम भी ऐसे ही कही निकल जाया करते थे अपने दोस्तों के साथ। उनमें से एक लड़का जिसकी उम्र कोई 17 साल रही होगी, वो हम सब के पास आता और कुछ बोल के आगे बढ़ जाता। मैं सोच रहा था, कि कब वो मेरे पास आएगा और मुझसे बाते करेगा। 54 सालों के इंतजार के बाद ये मेरी पहली बातचीत होने वाली थी। मेरे पास आके उसने “जय हिंद” और फिर “प्रणाम” बोला। मैं भी उसे जय हिंद कहना चाहता था, पर मेरी अपनी कुछ मज़बूरी थी मैं चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा। उसने अपने पूरे भविष्य की प्लानिंग मुझे कुछ 2 मिनट में सुना दी होगी और फिर वो आगे बढ़कर मेरे दुसरे साथियों से बात करने लगा। 54 साल में ये पहला खुशी का पल था मेरे लिए, मैं पूरे दिन बस उस लड़के के बारे में ही सोचता रहा।
दिन फिर से बीतने लगे और लोगों की भीड़ धीरे-धीरे करके कम होने लगी, साथियों के परिचितों का आना भी कुछ कम हो गया था। पर मेरा मेरे अपनों से मिलने का इंतजार अब भी खत्म नहीं हुआ था, अगर मुझे सही याद है तो 25 फरवरी 2020 का वो दिन था जब कोई एक 40-42 साल का आदमी मेरी तरफ बढ़ रहा था। मैं उस आदमी से बिल्कुल भी परिचित न था, पर न जाने क्यों उसके हाथ मे जो फूल था, मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे लिए ही लाया गया हो।
मेरे पास आकर उसने मुझे छुआ। मुझे छु कर वो शायद वक़्त की उस धूल को उतारने की कोशिश कर रहा था जो इतने सालों में हमारे रिश्तों के ऊपर जम गई थी। मै लगातार उसे देखता जा रहा था फिर उसने मुझे वो फूल दिए और इसके साथ ही मुझे यकीन हो गया था कि ये मेरे लिए ही आया है। पर अभी भी मैं उसे पहचान नहीं पा रहा था, शायद इसलिए भी क्योंकि वक़्त का फासला कुछ ज्यादा था। थोड़ी देर बाद उसने मुझे अपना परिचय दिया, वो आदमी मेरे ही गाँव का था। इतने सालों में जो मैं अपने गाँव की पगडण्डी तक भूल चुका था। उससे मिलते ही अब मेरा गाँव और घर मेरे आँखों के सामने घूमने लगा था। मैं फिर से बच्चो की तरह अपने गाँव की पगडंडियों पे दौड़ लगा रहा था।
दौड़ ख़त्म हुई और मैं वापस उस सख़्श के सामने था। उसने फिर मुझे बताया कि कैसे आज भी गाँव में लोग मुझे याद करते हैं। हर काम से पहले वो गाँव के पास बने मेरे चबुतरे पे आते हैं और मुझसे बाते करते हैं। लेकिन मैं वहां नही रहता क्योंकि मैं तो यहाँ अपने साथियों के साथ रहता हूँ।
क्या करूँ एक शहीद फौजी जो हूँ, अपने साथियों को कैसे छोड़ सकता हूँ।
मैं तो आ नहीं सकता, पर आप तो मिलने आ सकते हो।
मेरा पता है – नेशनल वॉर मेमोरियल, नई दिल्ली।