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Ye dill maange more captain vikram batra "shershaah"
Ye dill maange more captain vikram batra “shershaah”

मार्च का महीना और सर्द वादियों के बीच, टेबल पे बैठ कर दोस्तों से बातें करता हुआ वो शख्स उस दिन तक सिर्फ दोस्तों के लिए ही खास था, लेकिन उस रोज उसके कहें शब्दों ने उसे पूरे देश के लिए ख़ास बना दिया, “शेरशाह”।

“या तो मैं तिरंगे को लहरा के आऊँगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊँगा.. पर मैं आऊँगा जरूर”

उम्र का कुछ सही सही याद तो नहीं है पर 1992-93 की बात है एन.सी.सी की वर्दी पहने हुए उसे आज मैंने पहली बार देखा, चेहरे पे दिखती वो चमक इतना बताने के लिए काफी थी कि उसे आज वो खुशी मिल रही है जो पहले कभी न मिली लेकिन शायद उसे ये न पता था कि आगे जाकर उसकी ये ख़ुशी उसका जुनून बन जाएगी।

अब हर हफ़्ते मेरी उससे मुलाकात होने लगी और हर मुलाकात में उसकी वर्दी में बदलाव देख रहा था, एन.सी.सी की वर्दी का रंग अब सेना के वर्दी के रंग में और उस एन.सी.सी का बैच भारतीय सेना के बैच मे बदल रहा था। उस बदलाव के साथ ही एक बदलवा जो मुझे और दिख रहा था, वो था उसके जुनून का जिद्द में बदलना, उसकी वो जिद्द जो उसे सबसे आगे खड़ी करती हैं।

26 जनवरी 1994 राजपथ पर बढ़ाते हर नये क़दम के साथ वो अपने लिए एक नयी मंजिल लिख रहा था। जिस उम्र में लोगों को कल का नहीं पता होता है उस उम्र में उसने ये तय कर लिया था कि उसे क्या करना है।

जून 1996, आखिरकार उसकी मंजिल उसके सामने थी इंडियन मिलिट्री एकेडमी और इसे महज़ इत्तेफाक कहना सही नहीं होगा कि जो बटालियन इंडियन मिलिट्री एकेडमी के 19 महीनों तक शेरशाह के साथ रहने वाली थी उस बटालियन का नाम भी शेरशाह जैसे ही एक जुनूनी के नाम था, “मानेकशॉ बटालियन”।

एकेडमी के दिनों को खत्म कर वो निकल पड़ा मेरे तरफ़ आप मुझे उसकी मंजिल समझ सकते है उसकी जिद्द समझ सकते है या फिर उसका जुनून ये सहूलियत मैं आप पर छोड़ता हूँ। मेरी उससे पहली मुलाकात ने मुझे इतना तो यकीन दिला ही दिया था कि इन 6-7 सालों के समय ने उसकी जिद्द को मेरी सोच और मेरी ऊँचाई से भी परे पहुँचा दिया था।

1998 साल का अंत हो रहा था एक ऑपरेशन से वापस आने के बाद से ही उसके अंदर एक बेचैनी थी जो उसे परेशान किये हुए थी। फ़ोन पे बात करते हुए आज पहली बार उसकी आँखें नम दिख रही थी किसी से लगातार वो कहता जा रहा था कि “वो गोली मेरे लिए थी” मै दूर खड़ा चुपचाप ये सोच रहा था कि वो आदमी जिसके हौसले के आगे मेरा कद भी बौना लगता है कैसे वो अपने एक साथी के खोने से परेशान है। क्यों उसे इस बात की ख़ुशी नहीं है उसकी जान बच गयी, बल्कि अफ़सोस है कि वो गोली जिसने उसके साथी की जान ली वो उसे क्यों न लगी।

1999 मार्च का महीना और सर्द वादियों के बीच, टेबल पर बैठ कर दोस्तों से बातें करता हुआ वो शख्स उस दिन तक सिर्फ मेरे लिए ही खास था लेकिन उस रोज उसके कहें शब्दों ने उसे दोस्तों और फिर कुछ दिन में पूरे देश के लिए ख़ास बना दिया, “शेरशाह”
“या तो मैं तिरंगे को लहरा के आऊँगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊँगा.. पर मैं आऊँगा जरूर”

कारगिल में पाकिस्तान की नापाक इरादों को भांपते ही भारतीय सेना ने चोटियों पर पुनः कब्जा करने के विजय अभियान की शुरुआत कर दी थी और पाकिस्तानी के क़दम धीमे धीमे भारतीय जमीन से उखड़ते जा रहे थे। ऐसी ही एक चोटी 5140 जिसपर पाकिस्तानी सैनिकों ने कब्जा कर लिया था, वहाँ से पाकिस्तानियो को खदेड़ने का जिम्मा लिए लेफ्टिनेंट बत्रा और उनकी पलटन को मिला था। 16,962 फुट की ऊँचाई और दिल में “ये दिल मांगे मोर” के जोश के साथ ही लेफ्टिनेंट बत्रा और उनके साथियों ने 5140 से पाकिस्तानियों को खदेड़ दिया। 5140 की जीत के बाद, “ये दिल मांगे मोर” के नारे ने भारतीय सेनाओं के अंदर इतना गहरा उतार दिया कि पॉइंट 5100, 4700 और जंक्शन पॉइंट पे भारतीय तिरंगे का फिर से फहराना महज़ वक़्त की बात रह गयी थी। पॉइंट 5140 की अप्रत्याशित जीत के लिए बत्रा को फील्ड प्रोमोट करके कैप्टन बना दिया गया।

भारतीय सेना के विजय रथ के आगे पाकिस्तानी सैनिकों के पैर उखड़े दिख रहे थे। एक एक करके सभी पॉइंट पे पुनः नियंत्रण पाती हुई भारतीय सेना पॉइंट 4875 की तरह बढ़ रही थी, पर ऊँचाई का फायदा यहां पाकिस्तानी सैनिकों को मिल रहा था। भारतीय सेना की हर गतिविधि पर पाकिस्तानी सैनिको की नज़र थी जिस वजह से भारतीय सेना की लगातार कोशिशों के बाद भी पॉइंट 4875 पहुँच से दूर दिख रहा था।

मुझे याद है, कि फिर किस तरह से कैप्टन बत्रा ने जिद्द करके अपने कमांडिंग अफसर से पॉइंट 4875 पे जाने की परमिशन ली थी। खतरों से दूर भागते तो मैंने लोगों को देखा था पर ख़तरों के पास जाने के लिए किसी का यूँ उतावला होना पहली बार देख रहा था। कमांडिंग अफसर से आदेश मिलने के बाद कैप्टन बत्रा और उनके साथी निकल पड़े पॉइंट 4875 की तरफ, किसी तरह से पाकिस्तानी सैनिको ने भारतीय सेना की रेडियो फ्रीकवेंसी पे ये सुन लिया था कि कैप्टन बत्रा “शेरशाह” अपने 25 साथियों के साथ पॉइंट 4875 की तरफ निकल पड़े है और उन्हें ये पता था कि पॉइंट 5140 की उनकी हार के लिए कैप्टेन बत्रा “शेरशाह” ही जिम्मेदार थे। अब उनके सामने जो सबसे बड़ी चुनौती थी, वो थी पॉइंट 4875 को अपने नियंत्रण में बनाए रखना।

6-7जुलाई 1999, खड़ी चढ़ाई के बाद पाकिस्तानी घुसपैठिये अब सामने दिखने लगे, दोनों तरफ से चलती गोलियों ने थोड़े देर के लिए ही सही पर मेरे कान को भी सुन कर दिया। घने कोहरे और गिरती बर्फ़ ने कैप्टन बत्रा के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी, एक ही जगह पे ज्यादा देर तक रुकने के ख़तरे को भांपते हुए कैप्टन बत्रा ने खुद चार्ज करने का फैसला लिया और अपनी एके-47 के साथ कूद पड़े वो दुश्मनों से लोहा लेने के लिए। कैप्टन बत्रा ने 5 पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, अपने साथियों की मौत से बौखलाए पाकिस्तानियों ने भारतीय टुकड़ी पर मशीन गन से हमला कर दिया यहां पर कैप्टन बत्रा ने पुनः वीरता का परिचय देते हुए चार और पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया की तभी एक गोली ने टुकड़ी के एक जवान को घायल कर दिया मौके की अहमियत को समझते हुए कैप्टन बत्रा ने खुद घायल सैनिक को पत्थर की आड़ में करने का फ़ैसला किया और मदद में लगे साथी को ये कहते हुए पैर के तरफ भेज दिया कि “मेरी तो शादी भी नहीं हुई है आपका तो परिवार है” कैप्टन बत्रा अब दुश्मन की गोलियों के सामने थे कि तभी पाकिस्तानी स्नाइपर की एक गोली कैप्टन बत्रा ने सीने को भेदते हुए निकल गयी, मुझे ऐसा लगा जैसे वो गोली कैप्टन बत्रा के सीने में नहीं बल्कि मेरे सीने से होकर गुज़री हो। अपने देश अपने साथियों की चिंता करने वाला वो शख्स युद्ध भुमि में अब गतिशून्य पड़ा था और उसके साथ ही मेरी गति भी थम सी गयी।

विषम परिस्थितियों में भी कैप्टन बत्रा ने अपनी टुकड़ी का नेतृत्व बहुत दक्षता के साथ किया, जिसके लिए मरणोपरांत कैप्टन विक्रम बत्रा को “परम वीर चक्र” से नवाज़ा गया।